की गोम्पा-यह समुद्रतल से 4116 मीटर (13,500 फुट) की ऊंचाई पर काजा से 12 किलोमीटर दुर पहाड़ी पर स्थित है। यह दूर से किसी किले जैसी दिखती है। इसे 14 वीं या 18 वीं शताब्दी का बताते हैं। 14 वीं शताब्दी में रंगरीक गांव में हुआ करती थी। कुछ आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दिया था। बाद में यहाँ पहाड़ी पर की गोम्पा का निर्माण किया गया जहाँ वह 18 वीं शती अस्तित्व में आई। फिर भी विरोधी रियासतों के राजाओं में आपसी युद्ध से इस गोम्पा को क्षति पहुँचती रही। गेलुग्पा सम्प्रदाय ने इस गोम्पा घाटी में प्रसिद्ध है। इसमें थंका चित्रों का भण्डार है।
गेलुग्पा सम्प्रय्दाय को पीतवर्णी कहा जाता है। इससे दलाई लामा का भी सम्बन्ध है। इस श्रेष्ठ संप्रदाय ने भिक्षु समाज में पनपती कुरीतिओं को दूर करने का संकलप लिया था। रक्तवर्णी सम्प्रदाय द्वारा गोम्पाओं में मदिरा, मांस इत्यादि के उपयोग में ढील देने के बाद इस सम्प्रदया ने कड़ी आचार सहिंता तैयार की थी। "की गोम्पा" पर प्राचीन काल में तीन आक्रमण हुए। 19 जनवरी, 1975 में आए भूकंप के कारण इसे क्षति पहुंची लेकिन भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की तकनीकी सहायता से इसकी मरम्म्त कर ली गई।
गोम्पा में सौ से अधिक आवसीय कक्ष में तीन सौ लामा रहते हैं। ऊपरी भाग में पांच मंदिर हैं। पहला "कुदुंग" कहलाता है।
भगवान अवलोकितेश्र्वर बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा स्थापित है। दूसरे कक्ष "निशुंग" में बुद्ध की प्रतिमाएं हैं। तीसरे को "छोम" कहा जाता है। भगवान बुद्ध की मूर्ति इसमें स्थापित हैं। यहाँ लामाओं को सुबह, दोपहर और संचालन मुख्य लामा करते है जिनकी तीन साल की अवधि के लिए नियुक्त होती है। दूसरे तथा तीसरे स्थान पर भी नियुक्ति होती है। सभी कक्षों में भगवान बुद्ध की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। खुली अलमारियों में कं ज्युर और तंज्युर के 108 और तंज्युर के 225 ग्रन्थ कपड़ों में लपेटे हुए हैं। थंका चित्र बहुत सुन्दर और बहुमूल्य हैं। यह "की गोम्पा" की अभूतपूर्व धरोहर है।
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